Saturday, July 29, 2017

भाषण,सपनें और हक़ीकत

“गुलाबचंद” .... यही नाम था इस नौजवान का | “गुल्लू” से शुरू हुई जिन्दगी ‘गुलाब” से होती हुई बड़ी जल्दी “गुलाब चंद” तक आ पहुंची | गुलाब चंद के हाथो में इंजीनियरिंग की डिग्री फडफडा रही थी तो दिल में भविष्य के सपनें कुलांचे मार रहे थे | गुलाब ही नहीं पिता मेहलू को भी भरोसा था कि “मामा” के राज़ में सपनों को पंख देना आसान है | जूते चप्पल की मरम्मत करते हुए बेटे के सुनहरे भविष्य का सपना गढ़ता चला गया | 
कुछ महीनों पहले ही तो “मामा” आए थे गाँव में | खूब जोरदार इस्तकबाल हुआ था | मेहलू भी पीछे न था | मेहलू ने अपनी दुकान की छुट्टी कर दी | मंच से मामा ने जैसे ही कहा कि “ मेरे भांजे – भांजियों चिंता मत करना ..तुम्हारे मामा की सरकार है ...स्वरोज़गार के लिए बिना गारंटी के सस्ता लोन दूंगा” | सबसे तेज़ ताली की आवाज मेहलू की थी | आज तो पैर जमीन पर नहीं थे उसके | सपना था कि बेटा कोई बड़ा उद्योग खड़ा करे | गुलाब चंद ने भी अपने पिता के तरह बड़ा सा जूते चप्पल बनाने का कारखाना आँखों में बसा रखा था |
डिग्री थामे गुलाब बड़े ही धाक और भरोसे से बैंक की दहलीज पर पहुंचा | मेहलू तो बस बेकरार था कि बस शाम तक गुलाब बैंक से लोन का चेक थामे ही लौटेगा | आज से इस काम से मुक्ति अब वह भी शान से जिन्दगी गुजर बसर होगी | बार बार दुकान में लगे ‘’मामा’’ के पोस्टर को देखकर हर्षित हो जाता और कान में ‘’ तुम्हारे मामा की सरकार है’’ शब्द गूंजने लगते |
उत्साहित-विश्वास से लबरेज़ गुलाब ने बैंक मैनेजर को अपने सारे ज़रूरी कागजात का पुलिंदा पकड़ा दिया | मैनेजर साहब ने कागज देखने का ज़हमत भी न उठाई और बाहर वाले चेम्बर में बैठे शर्मा जी से मिलने का हुक्म सुना दिया | शर्मा जी आज फुर्सत में न थे | 15 दिन बाद आने की बात कह चाय की दुकान की राह पकड ली |
15 दिन बीते और गुलाबचंद बैंक में जा धमका | लेकिन कभी यह कमी तो कभी वह कमी | कभी गारंटी की मांग तो कभी और कोई बहाना | अगले 4 महीने तक बैंक और घर की राह,यही दिनचर्या थी गुलाब की | अंत में बैंक ने गुलाब चंद को शुक्रिया कहकर फायनली बाहर का रास्ता दिखा दिया | मेहलू का पारा आसमान पर | 'मामा' ने कहा था ..ऐसा हो ही नहीं सकता | गुलाब की मनाही की बाबजूद मेहलू बैंक जा धमका ...मैनेजर ने साफ़ साफ़ कह दिया “हम तो लोन नही दे सकते ..मामा से ही ले लो”
झटका था लेकिन भरोसा अभी भी किसी कोने में अडा था | तहसीलदार साहब से लेकर कलेक्टर और विधायक जी तक मेहलू ने कदम रगड़े लेकिन सभी माननीय ‘’आवेदन लेकर आश्वासन’’ की पुडिया निशुल्क पकडाते रहे | गुजरते वक्त और आश्वासन से बनी झिडकियों ने मेहलू को भाषणों और राजनीति की हक़ीकत समझा दी | सपनों को ताक पर रख जैसे तैसे हाथ पैर जोड़कर मेहलू ने गुलाबचंद की नौकरी पटेल साहब के ट्रेक्टर शो रूम पर लगवा दी | गुलाबचंद भी सालों के पाले मुगालते को छोड़कर दो जून की जद्दोजहद में जुट गया |
मेहलू फिर से अपने पुश्तैनी काम में मन मार कर जुट गया | पोस्टर आज भी लगा था | बीच से फट कर फडफडा रहा था लेकिन अब मेहलू का ध्यान पोस्टर पर नहीं बल्कि जूतों पर था | और टीव्ही पर विज्ञापन चीख रहा था ..’’मामा बैठा है मेरे भांजे-भांजियो कोई दिक्कत नही होने दूंगा’’

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